कुलदीप राणा /देहरादून
-दून की एमरजेंसी के बाहर आक्सीजन मास्क पहने डेढ़ घंटे तक किया उपचार का इंतजार.
-आयुष्मान बीमा योजना के कायदों में उलझें रहे डॉक्टर्स और कर्मचारी.
– प्राथमिक उपचार दिया होता तो बच जाती बिजेंद्र कि जान.
उपचार की अंतिम आस मे दून अस्पताल की एमरजेंसी मे पंहुचे विजेंद्र को कहाँ पता था कि जिन डॉक्टरर्स को वह भगवान समझ अपने प्राणो की रक्षा के लिये उनकी चौखट पर आया है वही चिकित्सा के देवता उसे यमदूत के हवाले कर देंगे। सांस लेने मे परेशानी झेल रहे बिजेंद्र,एमरजेंसी के बाहर एम्बुलेंस में ऑक्सीजन मास्क लगाये उपचार के इंतजार मे बार-बार अपना सिर उठाकर आशा भरी नजरों से अस्पताल की तरफ टकटकी लगाये देखता रहा,इस दौरान अनहोनी के डर से बिजेंद्र का परिवार अनेक बार डॉक्टर्स के पास जा-जा कर हाथ जोड़ विनती करता, लेकिन धरती पर जीवन रक्षक भगवान कहे जाने वाले डॉक्टर्स ने बिजेंद्र के हालत पर कोई ध्यान नहीं दिया,उनका तो ज्यादा फोकस इस बात पर रहा कि बिजेंद्र को भाजपा सरकार की जीवन रक्षक कही जाने वाली ” अटल आयुष्मान स्वास्थ्य बीमा योजना” के अंतर्गत एडमिट किया जा सकता है या नही। वे इन्ही कायदो पर बहस करते रहे, जीवन से ज्यादा सरकारी नियम कायदों को कैसे अमल में लाना है यह कार्य करना उन्होंने ज्यादा मुनासिब समझा। उधर इलाज के इन्तजार में बिजेंद्र अपने प्राण त्याग गया।
बुधवार को उत्तराखंड की ग्रीष्म कालीन राजधानी के बहु प्रतिष्ठित राजकीय दून मेडिकल कालेज में एक ऐसा ही झकझोर देने वाला वाक्या पेश आया जिसने अस्पताल के डॉक्टर्स और कर्मचारियों की सवेंदनशीलता, पेशे की जिम्मेदारी और अपने माता पिता की परवरिश को भी शर्मसार करके रख दिया है।

बिजेंद्र को सांस लेने में हों रही थी परेशानी
सांस लेने में समस्या से आराम न मिलने पर निजि अस्पताल द्वारा रेफर किये जाने के बाद जब बिजेंद्र का परिवार उन्हें एम्बुलेंस मे लेकर दून अस्पताल की एमरजेंसी मे पंहुचा, वहाँ ड्यूटी पर तैनात डॉक्टर्स और कर्मचारियों ने बिजेंद्र को प्राथमिक उपचार देने के बजाय आयुष्मान बीमा योजना के नियमों पर ध्यान देना ज्यादा उचित समझा, लगभग डेढ़ घंटे तक उनके बीच यहीं चर्चा होती रही कि बिजेंद्र को उपचार के लिये एडमिट किया जा सकता है या नहीं। इस दौरान सांस लेने मे परेशानी झेल रहे बिजेंद्र एमरजेंसी के बाहर ही एम्बुलेंस पर ऑक्सीजन मास्क के सहारे उपचार के इंतजार मे पड़ा रहा। बिजेंद्र के परिजन लगातार डॉक्टर्स के पास जाते और उन्हें उपचार में देरी के कारण बिजेंद्र की खराब होती जा रही हालत पर विनती करते रहे, लेकिन डॉक्टर्स तो अपने में ही उलझें रहें, वह यह तक भूल गये कि डॉक्टरी का सफ़ेद चोला पहनते समय, जिसकी पढ़ाई करते हुये मेडिकल कालेज में “वाइट कोट सेरेमनी” के दौरान जो प्रतिज्ञा उन्होंने अपने चिकित्सकीय पेशे में आने से पहले ली थी जिस प्रतिज्ञा में मरीज की जीवन रक्षा सबसे ऊपर रखी गयी है उसकी गरिमा क्या है? इसी दौरान बिजेंद्र की हालत लगातार बिगड़ती गयी अंत में डॉक्टर्स की मिन्नतें कर थक हार चुके बिजेंद्र के परिजन उन्हें अन्य अस्पताल में ले जाने लगे लेकिन तक तक उपचार की आस में बिजेंद्र जीवन की जंग हार चुका था।
व्यवस्था पर सवाल?
बिजेंद्र की मृत्यु अपने पीछे कई सुलगते सवाल छोड़ गयी है। क्या प्रदेश की सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था इतनी निरंकुश हों गयी है कि वही मानव जीवन का मोल भी भूल गयी है। किसी स्वास्थ्य अधिकारी की इतनी हिम्मत हों सकती है कि वह उपचार के बुनियादी कायदों को भी दरकिनार कर दे, बिना राजनितिक रसूख के क्या यह आचरण संभव है ऐसे अक्षम और गैर जिम्मेदार लोगों के खिलाफ कोई कानूनी कार्यवाही होंगी? क्योंकि अस्पताल की चौखट पर डॉक्टर्स के सामने एक इंसान तङप कर मर जाये क्या यह यह प्रकरण हत्या के दायरे में नहीं आएगा।
सरकारी अस्पताल गरीब जनता के लिये उपचार का एक मात्र सहारा होते है। अगर गरीब ही चौखट पर मर जाये तो ऐसे सरकारी तंत्र का क्या महत्व। क्या अस्पतालों में गरीब जनता को सरकारी बीमा योजना के बिना उपचार नहीं मिल सकता।

न्यायिक प्रकरण के कारण दो दिन के लिये देहरादून से बाहर गये प्रदेश के चिकित्सा शिक्षा सचिव डॉ आर राजेश कुमार से ज़ब फोन पर उक्त घटनाक्रम के संदर्भ में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि इस तरह के प्रकरण पर उनका जीरो टोलरेंस है,सीएमएस से जाँच कर रिपोर्ट देने को कहा है रिपोर्ट मिलते ही कार्यवाही की जायेगी, अब देखना यह है कि सचिव सहाब उक्त प्रकरण पर कितनी गंभीरता दिखाते है।
कोरोनाकाल में मिसाल बनकर उभरे दून मेडिकल कालेज में अब एकाएक सवेंदनहीनता और बदइंतजामी की घटनायें सामने आने लगी है। ऐसे प्रकरण दून अस्पताल या सूबे के सरकारी अस्पतालो में कोई नये नहीं हैँ

मंगलवार रात को भी दून की एमरजेंसी में एक मां तीन साल के घायल मासूम को लिये उपचार हेतु इधर-उधर भटकती रही, कहा जा रहा है कि मासूम की मां चिकित्सकों से बच्चे को भर्ती करने के लिए गिड़गिड़ाती रही,लेकिन उपचार तो दूर मासूम को भर्ती तक नहीं किया गया और बच्चे को गोद में उठाए माँ को पूरी रात इन्तजार करना पड़ा।
अस्पताल प्रबंधन कभी बाहर से जांच तो कभी डॉक्टर के मौजूद न होने की बात कहते रहे। 17 घंटे बीत जाने के बाद बुधवार दोपहर बाद बच्चे को भर्ती किया गया।
अब ऐसी स्वास्थ्य व्यवस्था और ऐसे प्रबंधन को आप क्या कहेगे। उस पर आलम यह है कि स्वास्थ्य मंत्री डॉ धन सिंह रावत के चिकित्सा व्यवस्था के दावे कभी खत्म ही नहीं होते।राजनितिक टशन के चलते दून मेडिकल कालेज की स्थिति दिन प्रति दिन नकारात्मक होती जा रही है चहेतों को पोस्टिंग दिने के चक्कर में अस्पताल की व्यवस्थाओं का दिवाला निकलता जा रहा है। कहा जा रहा है कि डॉक्टर्स में गुटबाजी और मेडिकल कालेज की कमाने कमजोर हाथों में होने से माहौल अराजकता पूर्ण हों गया है।उस तरफ कोई गंभीरता दिखाने को तैयार नहीं है?