एक गढवाली कहावत है कि” पौदा बिरालों मा मूसा नि मारैंदा” बाधा रहित सड़क विकास की मांग है।
हमारे पूर्वजों ने इसकी उपयोगिता तब समझी थी जब हमारे सुदूर चमोली के लोग ढाकर के रूप में रामनगर, दुगड्डा जैसे मण्डियों तक सामान लेने समूह बनाकर जाते थे और कई हफ्तों बाद पैदल चल कर कई रात्रि विश्रामों के बाद घर पंहुचते थे.तब उन्होंने जरूर कल्पना की होगी कि काश कभी हमारे घर तक भी गाड़ी पहुचती तो हमारा इतना समय और श्रम बच जाता?
लेकिन उनकी यह कल्पना उनके जीते जी साकार न हो सकी. सेना के लोग जब एक महिने की छुट्टी में गांव आते थे तो मोटर हेड से घर पंहुचने में आधी छुट्टी खत्म हो जाती थी, दो दिन भी वे शकुन से घर में नहीं बिता पाते थे कि वापस जाने की तैयारी शुरू कर देते थे. कितनी बड़ी हताशा होती थी तब? लेकिन तब भी लोगों ने आश नहीं छोड़ी और कई जागरूक लोगों ने सामुदायिक रूप से श्रमदान करके सड़कें बना डाली. ज्वालपा-ऐकेश्वर 40 किमी लम्बा जन शक्ति मार्ग इसका ज्वलन्त उदाहरण है. अच्छी सुलभ सड़कें बिकास के पर्याय हैं।
2016 में जब आल वैदर रोड़ बनने की घोषणा हुई और यह बात सामने आई कि 12 मी चौड़ी कटिंग करके 10 मी चौड़ी हाट मिक्स सड़क स्वरूप में आयेगी तो हिमालय के पर्यावरण की चिन्ता भी सताने लगी और सदियों से विकास की दौड़ में पिछडे़पन की भी. 1962 में चीन के युद्ध का खौफ जब कि बार्डर जिला होने के बाबजूद हमारे पास नीति माणा तक भी पंहुचने के लिए भी यातायात सुबिधा नहीं थी, एक मात्र ऋषिकेश- बद्रीनाथ मार्ग कलियासौड़ और नन्दप्रयाग में जब बन्द हो जाता था तो महिनों में खुल पाता था. यह दर्द शायद आज लोग भूल गये हैं.।
यह भी सत्य है कि सड़क के बनने में काफी पेड़ कटे हैं, मिट्टी के डम्पिंग जोन सही न बन पाने से पर्यावरण का नुकसान हुआ है, इस ओर सरकार को पर्यावरण जानकारों की एक जागरूक टीम बनाकर मानीटरिंग करते रहना चाहिए था.सड़क का पहले पर्यावरण विदों के साथ साथ कुछ लोगों ने भी बिरोध किया लेकिन जब धीरे धीरे सड़क का स्वरूप कुछ स्थानों पर आकार लेने लगा तो कुछ पर्यावरण विदों को छोड़कर अधिकांश लोग इस चारधाम सड़क की उपयोगिता समझ गये. बाद में तो लोग सड़क बनाने में भी सहयोग करने लगे, अर्थात तीन-चार धण्टे तक लम्बी कतारों में फंसे बहनों में बैठे लोग चुपचाप इंतजार करते रहे और यह कहते सुने गये कि कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है.
अब जबकि सड़क का लगभग अस्सी प्रतिशत भाग की कटिंग पूरी हो चुकी है और केवल हार्ड राक वाली जगहों पर भी कार्य आधा हो चुका है तो ऐसी स्थिति में माननीय उच्चतम न्यायालय का सड़क की चौड़ाई मात्र 5.5 मी करना सबको मायूस करने जैसा हो गया है।
उतराखण्ड वासी हमेशा पर्यावरण के प्रति सजग रहे हैं,जागरुक रहे हैं जिसका सबसे बड़ा उदाहरण यहाँ की वन पंचायतें हैं जो पूरे विश्व में अद्भुत हैं. अपने प्राकृतिक संसाधनों को संरक्षित रखने और संवर्धित करने में उतराखण्ड वासी हमेशा आगे रहे हैं. अब समस्या और जटिल होगी कि यदि कार्य यहीं पर रुक जाता है तो भूस्खलन और लगातार टूट फूट की धटनाएं होती ही रहेंगी. मुंह पर आई थाली हटा देने से लोगों में पर्यावरण संरक्षण की भावना शिथिल पड़ जायेगी जिससे लोग पर्यावरण के नाम पर चिढने लगेगे और संरक्षण में सहयोग नहीं करेंगे जिसका दूरगामी दुष्परिणाम सामने आ सकते हैं. पहले ही उतराखण्ड के लोग पर्यावरण कानून नियमों को थोपे जाने से परेशान हैं, बड़ी-बड़ी पर्यावरण की समस्याएं बांह फैलाये खड़ी हैं फिर भी यहाँ का सीधा साधा मानव देश हित और हिमालय के हित में मौन साधे हुए है.सात राष्ट्रीय उद्यान,छ: राष्ट्रीय पार्क, तीन आरक्षितति, एक बायोस्फीयर, और कुछ और भी प्रस्तावित, जंगली जानवरो का आतंक, चीड़ के जंगलों का अधिक विस्तार याने हर वर्ष आग में झुलसना और आंसू बहाता उतराखण्ड, गाजर घास, लेन्टाना, काला बांस के फैलते साम्राज्य से पारम्परिक घासों का अभाव याने पशुपालन पर अंकुश,जल स्रोतों पर सूखे की मार, अब बचा क्या है करने को? बदले में ऊपर से गंगा बचाओ, हिमालय बचाओ, वन्यप्राणी बचाओ, जंगल बचाओ, बुग्याल बचाओ का दायित्व भी हमारे ही कंधों पर है. सरकार !हम हिमालय वासियों की भी तो सुनो! एक अदद अच्छी सड़क पर आस टिकी थी वह भी आधीआधी में ही छीन ली. हम तो आस लगाए बैठे थे कि इतने बांधों के बदले मुफ्त बिजली, गंगा, यमुना बचाने के एवज में मुफ्त पानी, जंगल बचाने और राष्ट्रीय पार्को के बदले मुफ्त गैस मिल जाती तो हम समझते कि हमारे पूर्वजों ने हिमालय में मेहनत करके जो हरे भरे वन विकसित किये थे उनकी कृपा से उनके सन्तानों को यह रायल्टी मिल रही है.
वरिष्ट एडवोकेट गोपेश्वर श्री हरीश पुजारी जी द्वारा सुझाव दिया गया है कि इस सम्बंध में राज्य सरकार और केन्द्र सरकार को पुर्नविचार याचिका माननीय उच्चतम न्यायालय में प्रस्तुत करनी चाहिए और मजबूती से अपना पक्ष रखना चाहिए।
जय हिन्द, जय उतराखण्ड