कुलदीप सिंह राणा, देहरादून
बागेश्वर उपचुनाव के लिये सेनाएं सज चुकी है,भाजपा ने अपने दिवंगत नेता चन्दन राम दास की पत्नी पार्वती दास को चुनावी मैदान में उतारा है, कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी से कुछ दिन पूर्व ही कांग्रेस पार्टी में शामिल हुये बसंत कुमार को अपना अधिकृत प्रत्याशी बनाया है। उत्तराखंड में उपचुनाव का इतिहास देखने से स्पस्ट हो जाता है कि जीत हमेशा सत्ता के पक्ष मे ही गयी है। इस दृष्टि से भले ही यह चुनाव कोई उत्सुकता न जगा रहा हो ,लेकिन उपचुनाव से ठीक चार दिन पहले बागेश्वर सीट पर कांग्रेस से पूर्व प्रत्याशी का बगावत कर भाजपा में शामिल हो जाना, यह घटनाक्रम चुनावी साल में संगठनात्मक राजनीति को जरूर रोमांचक कर गया है। वर्ष 2022 में रंजीत दास 12 हजार मतों से भाजपा के स्व.चन्दन रामदास से विधानसभा चुनाव हारे गये थे।उपचुनाव में वह कांग्रेस से स्पस्ट प्रत्याशी माने जा रहे थे।रंजीत दास की बगावत से कांग्रेस के भीतर कई सवाल खड़े हो गये है, जिसका जवाब उन तमाम कांग्रेसी नेताओं को देने होंगे जिनके कारण पार्टी की स्थिति लगातार कमजोर होती जा रहीं है। रंजीत दास का भले ही अपना कोई प्रभावशाली राजनीतिक इतिहास न हो लेकिन पिता बागेश्वर सीट से अविभाजित उत्तर प्रदेश में चार बार विधायक निर्वाचित रहे थे। वह स्वंम को विगत 32 वर्ष से राजनीति में सक्रिय बताते है।
राजनीतिक मनोविज्ञान की दृष्टि से देखे तों लोक सभा चुनाव 2024 से पहले भाजपा की यह सेंधमारी कांग्रेस के मनोबल को तगड़ा झटका दे गयी है। एक पारम्परिक काग्रेसी का इस प्रकार पार्टी से बगावत करना, पार्टी के भीतर कार्यकर्ताओं में उपज रहीं नाराजगी को एक बार फिर सतह पर ले आया है जो रणनीतिक दृष्टिकोण से चुनावी साल में बेहद नुकसानदायक सबित हो सकता है। आने वाले दिनों में बागेश्वर से निकलने वाला संदेश पूरे कुमायूँ मण्डल को प्रभावित कर सकता है।इस मण्डल से पार्टी के बड़े नेता लगातार चुनाव हारते आ रहे है। जिनमे हरीश रावत बड़ा नाम है।कांग्रेस के भीतर की गुटबाजी किसी से छिपी नहीं है। गाहे बगाहे कांग्रेसी ही जिसे मीडिया में उछाल देते है।
गौर करने वाली बात यह भी है कि एक तरफ तो कांग्रेस लोकसभा चुनाव 2024 की तैयारियों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध आम आदमी पार्टी के साथ I.N.D.I.A. नामक गठबंधन कर चुनाव लड़ने की दिशा में आगे बढ़ रही है, वही उत्तराखंड के बागेश्वर विधानसभा उपचुनाव में आम आदमी पार्टी के ही प्रदेश उपाध्यक्ष को तोड़ कांग्रेस में शामिल करने का खेल खेलती है। ऐसे में यह चुनाव विपक्षी गठबंधन की गाठों को भी प्रभावित करता दिख रहा हैं।
अब सवाल उठता है कि ज़ब विधानसभा उपचुनाव में ही कांग्रेस की गठबंधनात्मक व संगठनात्मक एकजुटता का यह आलम है तों लोकसभा चुनाव को लेकर पार्टी कैसे एकजुट हो चुनाव लड़ेगी? पिछले कुछ वर्षो से देश के साथ साथ उत्तराखंड में भी कांग्रेस का हाथ कमजोर हुआ है पार्टी के बड़े नेता, कार्यकर्ताओं को पंजे के नीच एकजुट करने के बजाय अपनी मुठ्ठी में करने में ज्यादा जुटे नजर आये है यह भी एक कारण है कि पार्टी अध्यक्ष कारण महारा तमाम कोशिशों के बावजूद भी कार्यकर्ताओ को एकजुट कर पाने में सफल नहीं हो पा रहे है पिछले कुछ वर्षों में कांग्रेस के मजबूत पिलर लगातार पार्टी का साथ छोड़ते जा रहें है।
विधानसभा चुनाव में यशपाल आर्या और हरक सिंह रावत की घर वापसी से भी कांग्रेस सत्ता की कुर्सी तक नहीं पहुंचा पायी थी। अनेक अवसरों पर टिहरी लोकसभा सीट पर पूर्व प्रत्याशी व पूर्व अध्यक्ष प्रीतम सिंह को लेकर भी अफवाहों का बाजार गर्म होता रहता है। वही यह भी सच है कि भीतरघात के कारण टिहरी से ही पार्टी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और खांटी कांग्रेसी रहे किशोर उपाध्याय जो कांग्रेस में रहते हुये लगातार चुनाव हार रहे थे कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल होते ही उसी सीट से आज विधायक है।2016 में भाजपा में शामिल हुये कांग्रेसी दूसरी बार आज भी मंत्री हैं। भाजपा से पुनः घर वापसी कर कांग्रेस में लौटे यशपाल आर्य और हरक सिंह की स्थिति किसी से छुपी नहीं है। इन तमाम घटनाक्रम से उपजता राजनीतिक संदेश कांग्रेस को लेकर जो इशारा कर रहा है वह भविष्य में पार्टी की एकजुटता को प्रभावित कर सकता है।
उक्त घटनाक्रम उत्तराखंड भाजपा में मुख्यमंत्री पुष्कर धामी व प्रदेश अध्यक्ष महेन्द्र भट्ट के बीच के मध्य बेहतर रणनीतिक तालमेल को भी उजागर करता है जो रणनीतिक रूप से भविष्य में भाजपा लिये और भी लाभदायकारी सिद्ध होगा।